डर सबको लगता है, मुझे भी। उस दिन मैं शायद कुछ ज़्यादा ही परेशान और किसी बात से डरा हुआ था। यह कविता उसी वक़्त की लिखी गई है। और पाठकों को यह बता देना चाहता हूँ कि मेरा सबसे बड़ा डर और कुछ नहीं खुद डर ही है।
औरों की तरह मैं भी कह सकता हूँ
कि मुझे किसी का कोई डर नहीं ...
पर मैं डरता हूँ ...
मैं डरता हूँ अपने कल से,
मैं डरता हूँ गुज़रे पल से ...
मैं डरता हूँ चार-दिवारी से,
मैं डरता हूँ इश्क़-बिमारी से ...
मैं डरता हूँ अपनों से भी,
मैं डरता हूँ अनजानों से ...
मैं इतना डरता हूँ क क्या बताऊँ,
मुझे डर है
मैं डर-डर क ही न मर जाऊं।

कि मुझे किसी का कोई डर नहीं ...
पर मैं डरता हूँ ...
मैं डरता हूँ अपने कल से,
मैं डरता हूँ गुज़रे पल से ...
मैं डरता हूँ चार-दिवारी से,
मैं डरता हूँ इश्क़-बिमारी से ...
मैं डरता हूँ अपनों से भी,
मैं डरता हूँ अनजानों से ...
मैं इतना डरता हूँ क क्या बताऊँ,
मुझे डर है
मैं डर-डर क ही न मर जाऊं।
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